Monday, June 8, 2015

A Poem in Memories

मुझे समझाना ऐ ग़ालिब एक बार - A Poem


मैंने इस पल से कहा मेरा वजूद क्या है तेरे इस रेहमत में
जवाब उसका एक लब्जों का ठहरा हुवा दोखा एक लब्जों में

हारा हुवा दिल बेसहारा एक और आया है
जवाब एक बार दीजियेगा एक ग़ालिब और आया है

मैं हर बार करने लगा कोशिशें खुद को समझने की क्या लब्जों की जुबानी मै ही हूँ
पर कोशिशें जो दिया मुझे उनको समझने को वह भी निकला बेजुबान क्या गुनाह भी मै ही हूँ

मै लगा पूछने इन हवाओं से क्या तुम्हें मेरी सांसों की खबर है या बेअसर यह अदब है
अगर ना हो खबर तुझे मेरी एहसासों की फिर मेरी अदब तुझे इतना खास फिर इतना बे असर क्यों है

मैंने मुस्काया वो छुपाने को जो तू रोता है खोने को
है कौन सा इसमें तेरा सारा दर्द है मेरा तुझे क्या है खोने को

है कौनसी वो वजह जो हमें पाने की बिन गुनाह ही सजा दोहराने की
है अगर यह सजा तुझे पाने की तो तोड़ देंगे सारी हदें तुझे पाने की

क्या हुवा जो गर मिला तू तो ! तुझे ही खुदा मानकर यही खो जायेंगे
होगा वक़्हत का पावंद भले इस जीवन में पर हर साँस तेरे ही नाम कर जायेंगे

आज जब था मै दुनिया के इस मैखाने में फिर भी खुद को पाया एक बंद गलियारे में
जाने खामोश था मैं आज क्यों इतना जब दुनिया ने मचाया औरों के साथ शोर इतना
आज खुद से ही था दूर इतना के दर्द का पता चला पर जाने क्यों आज चोट कहीं और उठी और मह्सुश इस दिल ने किया

बहोत ताक़त थी इन लहरों में कल जाने कितनी इधर बिखरी और जाने कितनी उधर

पर अब लगता है इसे अब यह समझ लेना होगा उन ख्वाइशों के साथ और जाना होगा लौट उधर

No comments:

Post a Comment